महामारी से आबाद होता पर्यावरण

महामारी से आबाद होता पर्यावरण

नरजिस हुसैन

कोरोना वायरस ने अब तक पूरी दुनिया में डेढ़ लाख से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली है और यह सिलसला अब तक जारी है। अलग-अलग देशों में करीब ढाई लाख से भी ज्यादा इसके संभावित मरीज हैं जिनका इलाज चल रहा है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में यह दुनिया भी एक ग्लोबल विलेज (गांव) बन गई है कोरोना की वजह से सप्लाई चेन, जरूरी सामान मिलने में मुश्किल, जन स्वास्थ्य की सेवाओं में रुकावट सोशल डिस्टैंसिंग और लॉकडाउन ने सभी सुविधाओं में अड़चने पैदा की है लेकिन, इन सबसे परे प्रकृति या कुदरत है जो इस वक्त खूब फल-फूल रही है।

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पिछले महीने जब से पूरे भारत में लॉकडाउन लगाया गया है तब से देश के सबसे प्रदूषित शहर दिल्ली की आबो हवा धीरे-धीरे कर बिल्कुल साफ हो गई है। दिल्ली के आनंद विहार में हवा की क्वालिटी जिसे एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) कहते हैं 229 से 80 पर आ गई। पिछले साल इन्हीं महीनों में यहां की हवा में प्रदूषण का स्तर 447 रिकार्ड किया गया था जो कोरोना महामारी के चलते 229 और फिर 80 तक आ गई। ये रिकार्ड बेहद गंभीर से गिरकर संतोषजनक पर सिमट गया है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण (सीपीसीबी) बोर्ड ने देश के 85 शहरों में हवा की क्वालिटी संतोषजनक दर्ज की है।

https://www.cpcb.nic.in/air/NCR/jantacurfew.pdf

अभी कुछ महीने पहले तक दिल्ली की हवा बेहद दमघोंटू और जहरीली होती जा रही थी। फिर दिवाली आई और फिर दिल्ली के आस-पास के राज्यों में पराली जली यानी हवा में गंदगी ही गंदगी। और इस बात पहली बार इस वजह से दिल्ली के स्कूलों को बंद किया गया और लोगों को मास्क से साथ बाहर निकलने या घर पर ही बने रहने की दिल्ली सरकार ने अपील भी की थी। इस दौरान दिल्ली समेत 13 और शहर दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में चयनित किए गए।

अमूमन प्रदूषण किन्हीं चार तरीकों से फैलता है। अचल स्रोत है- इंडस्ट्रीज, पॉवर प्लांट और फैक्ट्रीरज। चल स्रोत है- परिवहन, एरिया स्रोत- शहरों की बसावट और कृषि और प्राकृतिक स्रोत हैं- चक्रवात, जगंल की आग और ज्वालामुखी। इन चारों में से हवा को और प्रकृति को जितना पहले तीन स्रोत करते हैं उतना कोई नहीं करता। तो अगर यह बात हम सब जानते है तो सरकार ने पहले तीन स्रोतों से प्रकृति को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं किया। अब लॉकडाउन के बाद सभी फैक्ट्रियां, मिलें, वाहन, निर्माण काम सब बंद है और उसका हमारे वातावरण पर कितना सकारात्मक असर है ये सब देख भी रहे हैं और महसूस भी कर रहे हैं।

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हालांकि, जानकारों का मानना है कि सांसऔर फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों के लिए घर के अंदर की प्रदूषित हवा बी उतनी ही जिम्मेदार है जितनी की बाहर की हवा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक बाहर और घर के अदंर की प्रदूषित हवा हर साल दुनियाभर में करीब 70 लाख लोगों की जान लेती है। अक्तूबर, 2018 में अमेरिका की छपी एक रिपोर्ट State of Global Air 2018  में बताया गया है कि दुनिया में इस समय 90 फीसदी लोग वायु प्रदूषण का सामना कर रहे हैं। हालांकि, रिपोर्ट में यह साफ कहा गया है कि भारत में इस प्रदूषण के चलते 11 लाख लोग अपनी जान गवांते हैं। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं क्योंकि इससे न सिर्फ अस्थमा बल्कि दिल संबंधी बीमारियां, हार्ट अटैक, फेफड़ो के पुराने चिरकारी रोग और गले और छाती में संक्रमण तेजी से फैल रहे हैं। मौजूदा हालात को देखते हुए यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में किन्हीं वजहों से वायु प्रदूषण और बढ़ेगा और इसकी चपेट में सबसे ज्यादा बच्चों को नुकसान होने की संभावना है।

भारत ही नहीं आज पूरी दुनिया में कार्बन गैस का उत्सर्जन लगातार गिरता जा रहा है। कारखानों, फैक्ट्रियों और छोटे-बड़े बिजनेस बंद होने से इन्हीं महीनों में अमेरिका के न्यूयार्क का प्रदूषण एकदम 50 फीसद कम हुआ है। चीन जहां से कोरोना वायरस की शुरूआत हुई थी वहां 2020 के शुरूआत से ही हवा का प्रदूषण 25 प्रतिशत तक घटा है। कोरोना की वजह से यहां कोयले का इस्तेमाल 40 फीसद कम हुआ। एक्यीआई भी बेहद गंभीर से अच्छी और बेहतर 11.4 प्रतिशत हुआ। युरोप की तरफ देखएं तो पता चलता है कि यहां भी कोरोना ने पॉजिटिव असर डाला है। सैटेलाइन से ली गई तस्वीरें बताती है कि महामारी के दौरान इटली के ऊपर नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन काफी कम हुआ है। यही हाल स्पेन और इंग्लैंड का भी है। नौकरियों के लिए घर से ऑफिस और ऑफिस से घर, सड़कों पर दौड़ती तेज गाड़ियां और पब्लिक ट्रांसपोर्ट, हवा में रोजाना हजारों उड़ते हवाई जहाज सब के बंद होने से ये घरती, जानवर, परिंदे और जलवायु सब शांत हैं और वातावरण में आए इस बदलाव का लुत्फ ले रहे हैं।

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हालांकि, ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हो रहा है जब पूरी पृथ्वी तेजी से फल-फूल रही है। कोरोना से पहले बी अब तक इस दुनिया में जितनी भी महामारियां आई सब में वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को लेकर एक खास बात देखी और वह यह कि महामारी ने एक तरफ जहां घरती से हजारों और लाखों लोगों की जान ली वहीं उसी बीच पर्यावरण खूब आबाद रहा। चाहे वह 14 सदीं में युरोप में ब्लैक डेथ हो या 16वीं सदी में दक्षिण अमेरिका में स्मॉलपॉक्स और अमेरिका में स्पैनिश फ्लू इन सभी महामारियों में दुनिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम हुआ।

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बेरोजगारी समेत तमाम और किस्म की परेशानियों को अगर छोड़कर सिर्फ कुदरत की सेहत की बात की जाए तो कोरोना महामारी की अच्छी बात यह रही कि हम सब ने यह सीखा कि कम-से-कम में भी जिंदगी चल सकती है। यूं तो इंसान की जरूरते बहुत हैं लेकिन, आधुनिक दौर में जिंदगी जी रहे हम लोगों को कोरोना ने आज दोबारा यही सिखाया कि जरूरत सिर्फ दो वक्त की रोटी की है। और यह भी कि धरती पर इंसान का अकेला वजूद नहीं है इसपर और जिंदा चीजों का भी हक है। अब यह दुनियाभर की सरकारों का काम है कि जिस तरह इस महामारी में हमारी छोटी-छोटी कोशिशों ने दम तोड़ते पर्यावरण को जिंदा किया उसी तरह वक्त-वक्त पर हम और हमारी सरकारें इस सबक को और आगे कैसे ले जाएं। अपने अलावा जब हम और सरकारें दूसरों का भी सोचेंगी तभी इंसान और प्रकृति एक साथ फल-फूल पाएंगे।

 

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